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पाकिस्‍तान- चीन आए साथ, ऑपरेशन सिंदूर पर रूस ने क्‍यों साधी चुप्‍पी? क्या भारत के लिए दोस्त से 'किनारा' करने का वक्त आया?

Updated on 15-05-2025 02:11 PM
मॉस्को/नई दिल्ली: भारत के घरों में सालों से ये कहानी सुनाई जाती रही है कि 1971 में पाकिस्तान के खिलाफ लड़ाई में रूस ने कैसे हमारी मदद की थी। भारतीय जनमानस के मन में रूस की दोस्ती इतनी गहराई से बसी है कि ये लोक कथाओं का हिस्सा बन चुका है। भारत के लोग हर हाल में रूस पर भरोसा करते हैं, जबकि शायद ही कोई भारतीय होगा, जो अमेरिका पर आंख मूंदकर भरोसा करने की सलाह देगा। वह भी तब जब अमेरिका ने पिछले कुछ सालों में टेक्नोलॉजी और डिफेंस सेक्टर में भारत की जबरदस्त मदद की है। लेकिन पाकिस्तान के साथ मौजूदा संघर्ष में रूस की चुप्पी खल रही है। लिहाजा सवाल ये उठ रहे हैं कि क्या बदले जियो-पॉलिटिकल हालातों में अब भारत को रूस से उस तरह की मदद की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए, जैसी उम्मीद हम पहले लगाकर रखते रहे हैं?

पाकिस्तान के संघर्ष के बाद एक सवाल जो बार बार उठ रहे हैं, वो ये कि आखिर रूस कहां खड़ा है? क्या दशकों से भारत का आजमाया हुआ दोस्त अब तटस्थ बन गया है? क्या चीन के खिलाफ संभावित संघर्ष के दौरान रूस इसी तरह से चुप रहेगा, जबकि भारत को उस वक्त सबसे ज्यादा मदद की जरूरत होगी? जबकि हकीकत ये है कि भारत के पास आज भी अपने 60 से 70 प्रतिशत हथियार रूसी हैं। पाकिस्तानी मिसाइलों को आसमान में ही उड़ाने वाले एस-400 एयर डिफेंस सिस्टम भी रूसी है और रूस, एस-500 एयर डिफेंस सिस्टम के साथ साथ एसयू-57 जैसे पांचवीं पीढ़ी के लड़ाकू विमान भी भारत को ऑफर कर रहा है।
चीन और रूस अब एक खेमे में...
भारत जब पाकिस्तान के साथ संघर्ष में उलझा था उस वक्त चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग मॉस्को में रूस के विक्ट्री डे परेड में मौजूद थे। वो बतौर मुख्य अतिथि मॉस्को पहुंचे थे। 2013 में राष्ट्रपति बनने वाले शी जिनपिंग की ये 11वीं बार रूस की यात्रा थी। चीन खुद को अमेरिका के साथ चौतरफा उलझा हुआ देख रहा है और उसे एक शक्तिशाली पार्टनर की जरूरत है, जो रूस के अलावा कोई और हो नहीं सकता। चीन की नजर ताइवान पर है और डोनाल्ड ट्रंप का प्रशासन ताइवान को लेकर उतनी दिलचस्पी नहीं दिखा रहा है, जैसा पूर्ववर्ती बाइडेन प्रशासन ने दिखाया था। शी जिनपिंग और व्लादिमीर पुतिन के बीच पिछले दिनों अलग अलग बैठकों के बाद जारी कम से कम तीन घोषणापत्रों में अमेरिका के संबंध में खतरा जताया गया है। दोनों का तर्क है कि अमेरिका, एशिया में नाटो का विस्तार करना चाहता है और दोनों ने इस बात पर जोर दिया है कि रणनीतिक जोखिमों को तत्काल खत्म करने की जरूरत है।

एक्सपर्ट्स का मानना है कि भारत और पाकिस्तान संघर्ष के दौरान चुप्पी को इसी चश्मे से देखने की जरूरत है। इंटरनेशनल रिलेशन और इंटरनेशनल ऑर्गेनाइजेशन के फैकल्टी डॉ. मनन द्विवेदी भी यही कह रहे हैं। उन्होंने NBT से बात करते हुए कहा कि 'पाकिस्तान को लेकर भारत को रूस से उम्मीद कम नहीं करनी चाहिए, क्योंकि अभी भी भारत ने रूसी हथियारों को ही पाकिस्तान के खिलाफ इस्तेमाल किया है। लेकिन चीन का प्रभाव अब रूस पर है।' भारत ने रूस से एस-400 एयर डिफेंस सिस्टम, Su-30MKI, MiG-29, T-90 टैंक, और न्यूक्लियर सबमरीन जैसे अत्याधुनिक प्लेटफॉर्म खरीदे हैं। भारत और रूस के बीच के संबंध रणनीतिक ही नहीं, बल्कि भावनात्मक रहे हैं। लेकिन यूक्रेन युद्ध के बाद के हालात ने दुनिया में बहुत कुछ बदल दिया है।
रूस की पहली प्राथमिकता अब भारत नहीं?
रूस ने ना तो भारत के ऑपरेशन सिंदूर का समर्थन किया और ना विरोध। लेकिन उसने पाकिस्तान के आतंकवादी नेटवर्क पर भी कोई टिप्पणी नहीं की। रूसी विदेश मंत्रालय का संक्षिप्त और तटस्थ बयान था कि "हम सभी पक्षों से संयम की अपील करते हैं और क्षेत्रीय स्थिरता के लिए संवाद को प्राथमिकता देने की सलाह देते हैं।" ये बयान कुछ ऐसा है, जब ताशकंद में राष्ट्रपति पुतिन से मुलाकात के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने दिया था कि 'ये युद्ध का युग नहीं है।' रूस का बयान डिप्लोमेसी के लिहाज से संतुलित है और 'रूस, भारत के साथ खड़ा है', इस विचार का विरोध करता है। आज के जियो-पॉलिटिकल हालात में रूस की विदेश नीति कई अहम फैक्टर से प्रभावित हो रही है। जिसमें रूस के खिलाफ पश्चिमी प्रतिबंध, रूस का आर्थिक तौर पर चीन पर निर्भर हो जाना और पाकिस्तान से भी जुड़ाव शामिल है। 2024 में चीन और रूस की सेना ने रूस से सुदूर पूर्व में अपनी उपस्थिति दिखाई थी।
चीन, पाकिस्तान का काफी मजबूत रणनीतिक सहयोगी है और इस स्थिति में रूस का चीन की लाइन से अलग होना संभव नहीं है। रूस अब पाकिस्तान से भी संबंध बना रहा है। जिसके तहत दोनों देशों की सेनाओं ने ज्वाइंट मिलिट्री एक्सरसाइज भी किए है। दोनों देश धीरे धीरे डिफेंस डील की तरफ बढ़ते हुए भी दिख रहे हैं। लेकिन यहां ध्यान ये भी देना जरूरी है कि भारत भी रूसी हथियारों पर अपनी निर्भरता कम कर चुका है। बीबीसी के मुताबिक 2009 से 2013 तक भारत ने अपने 76 प्रतिशत हथियार रूस से खरीदे, लेकिन 2013 से 2019 के बीच भारत ने रूस से 36 प्रतिशत कम हथियार खरीदे। भारत अब इजरायल, फ्रांस, जर्मनी और अमेरिका के साथ भी रक्षा सौदे कर रहा है, तो फिर हमें रूस के लिए सीमा रेखा नहीं खींचनी चाहिए। हालांकि भारत ने अमेरिका और पश्चिमी देशों के विरोध के बाद भी लगातार रूसी तेल खरीदना जारी रखा और यूक्रेन युद्ध के लिए रूस की आलोचना नहीं की। शायद यही वजह है कि यूरोपीय देश पाकिस्तान के साथ संघर्ष के दौरान भारत को लेकर तटस्थ दिखने की कोशिश करते रहे।
रूस की तटस्थता का मतलब, रणनीति में भारत से दूरी?
डॉ. मनन द्विवेदी इस सवाल से सहमत थे कि 'चीन के साथ संघर्ष के दौरान रूस बिल्कुल तटस्थ रहेगा और भारत के साथ हरगिज नहीं आएगा।' डॉ. मनन द्विवेदी ने कहा कि 'चीन के साथ संघर्ष की स्थिति में भारत को अमेरिका और यूरोपीय देशों से मदद लेनी होगी। चीन के साथ संघर्ष की स्थिति बिल्कुल अलग होगी और भारत को उसके लिए अभी से नये स्तर की डिप्लोमेसी में जाना होगा। भारत को चीन के खिलाफ अमेरिका ही मदद दे सकता है।' यहां ये भी ध्यान रखना जरूरी है कि भारत की तरह चीन ने भी रूसी एस-400 एयर डिफेंस सिस्टम खरीद रखा है। ऐसे में रूस की तटस्थता को तीन नजरिए से समझा जा सकता है।
रूस को मजबूत दोस्त को अलविदा कहना चाहिए?
भारत और रूस के बीच विश्वास का जो रिश्ता रहा है वो डिप्लोमेसी की दुनिया में एक शानदार उदाहरण है। लेकिन वक्त आने लगा है कि जब भारत को अपने सबसे जिगरी दोस्त के साथ दूरी बनानी शुरू करनी चाहिए। हालांकि भारत को अभी भी लंबे वक्त तक रूसी हथियारों पर निर्भरता बनी रहेगी। एस-400 हो या Su-30MKI, T-90 टैंक, इनके लिए लॉजिस्टिक सपोर्ट अभी भी रूस से ही हासिल होगी। लेकिन इस हकीकत को मानना होगा कि रूस की युद्धग्रस्त अर्थव्यवस्था और चीन से नजदीकी भारत के लिए एक खतरे की घंटी है और आप जबतक एक रिश्ते से बाहर नहीं निकलेंगे, तब तक दूसरे रिश्ते से नहीं जुड़ पाएंगे। अमेरिका और भारत के बीच अभी ऐसा ही दिख रहा है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि भारत को रूस पर से 'ऑटोमेटिक सपोर्ट' की उम्मीद छोड़ देनी चाहिए या दरकिनार कर देनी चाहिए।
भारत को अभी भी UNSC में स्थाई सदस्यता के लिए रूस की जरूरत है। लेकिन ध्यान में रखना चाहिए कि रूस-पाकिस्तान-चीन ट्रायंगल का बनना भविष्य के लिए एक रणनीतिक सिरदर्द है। भारत को डिप्लोमेसी के हिसाब से बहुध्रुवीय संबंध बनाने की रणनीति पर जोर देना चाहिए, जैसा की भारत कर भी रहा है। भारत को अब खुलकर फ्रांस, अमेरिका, इजरायल और जापान जैसे साझेदारों के साथ संबंध बनाने की जरूरत है, ताकि चीन-पाकिस्तान के खिलाफ एक मजबूत डेटरेंट बने। रूस के साथ संबंध को अभी भी उसी गर्मजोशी के साथ जारी रखना चाहिए, लेकिन अब उसमें से 'भावनात्मक निर्भरता' को निकाल लेना चाहिए। भारत के लोगों को अब स्वीकार करना चाहिए कि रूस अब एक ऐसी स्थिति में है जहां वो चीन की छाया में खड़ा है। लिहाजा भारत को अपनी सुरक्षा, कूटनीति और रक्षा के लिए नये समीकरणों के हिसाब से ढालना चाहिए, ना की भावनाओं के आधार पर।

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