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15 वर्ष बाद ताड़मेटला नक्सली वारदात के बलिदानी 76 जवानों की शहादत हुई विस्मृत

Updated on 07-04-2025 12:47 PM

जगदलपुर।  बस्तर संभाग के लिए नासूर बन चुके नक्सलवाद का पदार्पण 1980 के दशक में हुआ, बस्तर में पहली नक्सली वारदात 4 अप्रेल 1991 को बीजापुर के मरईगुडा-गोलापल्ली में जवानों के वाहन को आईईडी विस्फोट से उड़ा दिया गया, जिसमें 19 जवान बलिदान हुए थे, दूसरी नक्सली वारदात एक वर्ष बाद 6 जून 1992 को नारायणपुर के छोटेडोंगर में हुई, इसके बाद नक्सली वारदात का सिलसिला चल पड़ा । वहीं आज से ठीक 15 वर्ष पूर्व नक्सल इतिहास की सबसे बड़ी नक्सली वारदात 6 अप्रैल 2010 को सुकमा जिले के ताड़मेटला गांव में हुई थी।

चिंतलनार कैंप से लगभग पांच किमी दूर ताड़मेटला गांव में सीआरपीएफ के 75 और जिला बल के एक जवान बलिदान हो गए थे।

नक्सलियों ने 76 जवानों का कत्लेआम कर दिया, ऐसी घटना की इतिहास अनदेखी नहीं कर सकता, लेकिन आज 15 वर्ष बाद ताड़मेटला नक्सली वारदात के बलिदानी 76 जवानों की शहादत को लगभग विस्मृत कर दिया गया है। ताड़मेटला के बलिदानी 76 जवानों को लेकर सरकार से लेकर किसी भी संगठन के द्वारा सोशल मीडिया के माध्यम से भी याद तक नही करना, अनुचित ही नही दुखद है।
यहां यह कहना गलत नहीं होगा कि कांग्रेस की सरकारें नक्सलियों की पोषक थी।भाजपा की 15 महिने की सरकार ने जैसे ही नक्सली खात्में के लिए आगे बढ़ी तो इसका परिणाम हम सबके सामने है। यदि कांग्रेस की सरकार नक्सलियों के खात्में का इरादा रखती तो बस्तर में नक्सली समस्या इतनी बड़ी होता ही नही। बस्तर में बदलते हालात के बीच नक्सलियों की मांद में सुरक्षा कैंप स्थापित होने से नक्सलियों को अपना आधार क्षेत्र छोड़कर भागना पड़ा है।

बस्तर में नक्सलियों के सफाए का अभियान जारी है, 15 वर्ष पहले ताड़मेटला की वारदात और पिछले 15 महीने मेंअलग-अलग मुठभेडों 400 से ज्यादा नक्सलियों के मारे जाने का नक्सली संगठन की स्वीकार्यता के बाद भयभीत बडें कैडर के नक्सली अपने गढ़ को छोड़कर भाग खड़े हुए हैं ।

अब बस्तर में सक्रिय नक्सल संगठन में कोई बड़ा नेतृत्व नहीं बचा है। नेतृत्व के अभाव में नक्सलियों के पीएलजीए कैडर के नक्सली लगातार आत्मसमर्पण कर रहे हैं।

जंगलों में भटक रहे निचले स्तर के लड़ाके जो आत्मसमर्पण नहीं कर पा रहे हैं, वे मुठभेड़ में मारे जा रहे हैं। पिछले डेढ वर्ष में बस्तर संभाग के सातों.जिलों में 800 से अधिक नक्सली आत्मसमर्पण कर चुके हैं।

अश्चर्य तो तब होता है, जब नक्सलियों के द्वारा झीरम कांड में कांग्रेस के 25 से अधिक नेताओं को नक्सलियों ने मौत की नींद सुला दिया था, इसके बाद भी कांग्रेस ने नक्सलियों के खात्में के लिए कोई कदम नहीं उठाया यदि कांग्रेस की सरकार, उस दौर में भी नक्सलियों के खात्में के लिए प्रयास करती तो आज बस्तर में नक्सलियों की इतनी बड़ी समस्या खड़ी ही नहीं होती।
नक्सली संगठन के जिस टेक्टिकल काउंटर अफेंसिव कैंपेन (टीसीओसी) माह में सुरक्षाबलों पर हमलाकर अपनी ताकत का अहसास करवाते थे, उसी टीसीओसी माह में स्वयं नक्सली सुरक्षाबलों के हांथों मारे जा रहे हैं। सुरक्षाबलों के आक्रमक अभियान में बचे बस्तर में आतंक का पर्याय रहे एक करोड़ के ईनामी हिड़मा, गणेश उइके और गुडसा उसेंडी जैसे बड़े लीडर आंध्र, तेलंगाना और ओडिशा भाग चुके हैं। इनसे नीचे के कैडर के बड़े नक्सली बीते 15 महीने में मारे गए हैं। बड़े कैडर के नक्सली, बचे-खुचे लड़ाकों को अपने हाल पर छोड़कर स्वयं अंडरग्राउंड हो चुके है।

सूत्रों से मिल रही जानकारी के अनुसार गणेश उइके उर्फ पी हनुमंता जो नक्सलियों के सैंट्रल कमेटी का सदस्य और दण्कारण्य स्पेशल जोनल कमेटी का इंचार्ज था, वह इस वक्त ओडिशा में सक्रिय है। वहां किसी सुरक्षित स्थान पर वह छिपा हुआ है। इसी तरह रमन्ना की मौत के बाद दण्कारण्य स्पेशल जोनल कमेटी में सचिव की जिम्मेदारी संभाल रहा केसीआर रेड्डी उर्फ वकील साहब तेलंगाना में कहीं छिपा हुआ है।

महाराष्ट्र का इंचार्ज नक्सली कोसा कभी अबूझमाड़ में बड़ा नाम था, वह अब महाराष्ट्र में सक्रिय है। गुडसा उसेंडी तेलगाना और एक करोड़ का ईनामी हिडमा के हैंदराबाद में होने की जानकारी सामने आ रही है। देवा बारसे, पारा राव और , दमोदर जैसे नक्सली अपनी जान बचाने अंडरग्राउण्ड हो गये हैं।
गौरतलब है कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के अनुसार नक्सलवाद से अति प्रभावित जिलों की संख्या 12 से घटकर मात्र 6 रह गई है। इनमें छत्तीसगढ़ के 4 जिले बीजापुर, कांकेर, नारायणपुर और सुकमा और झारखंड का पश्चिमी सिंहभूम और महाराष्ट्र का गढ़चिरौली जिला नक्सल प्रभावित बचा है। सरकार ने मार्च 2026 तक इस समस्या से मुक्ति का लक्ष्य रखा है। छत्तीसगढ़ में लगातार ऑपरेशन से हालात यह है कि नक्सलियों का कैडर मामूली रह गया है, बड़े नक्सली नेता दूसरे राज्यों में जाकर छिप गए है, और मध्यम स्तर के नक्सली जंगलों में भटक रहे हैं।
उल्लेखनिय है कि नक्सली गर्मी में टेक्टिकल काउंटर अफेंसिव कैंपेन (टीसीओसी) चलाते हैं। इस दौरान जंगल में पतझड़ का मौसम होता है, जिससे दूर तक देख पाना संभव होता है। नदी-नाले सूखने के कारण एक जगह से दूसरी जगह जाना भी आसान होता है। नक्सली साल भर अपनी मांद में दुबककर साथियों की मौत, गिरफ्तारी और आत्मसमर्पण को चुपचाप देखते हैं।


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