मौजूदा हालात में ‘बैड बैंक’ न सिर्फ जरूरी हैं, बल्कि अपरिहार्य : सुब्बाराव
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26-08-2020 11:16 PM
नई दिल्ली । भारतीय बैंकों की नियामक संस्था रिजर्व बैंक (आरबीआई) के पूर्व गवर्नर डी. सुब्बाराव ने मौजूदा हालात में ‘बैड बैंक’ की जोरदार वकालत करते हुए कहा कि ये ‘न सिर्फ जरूरी हैं, बल्कि अपरिहार्य भी हैं’, क्योंकि आने वाले दिनों में एनपीए तेजी से बढ़ेगा और ज्यादातर समाधान आईबीसी ढांचे के बाहर होंगे। बैड बैंक में संकटग्रस्त बैंकों के सभी बुरे ऋण या एपीए स्थानांतरित कर दिए जाते हैं। इससे संकटग्रस्त बैंक के बहीखाते साफ हो जाते हैं और देनदारी बैड बैंक के ऊपर आ जाती है। यहां तक कि 2017 के आर्थिक सर्वेक्षण में भी इस विचार का उल्लेख था, जिसमें तनावपूर्ण परिसंपत्तियों की समस्या से निपटने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र परिसंपत्ति पुनरूद्धार एजेंसी (पीएआरए) नाम से एक बैड बैंक के गठन का सुझाव दिया गया था। उन्होंने कहा, ‘बैड बैंक का सबसे बड़ा फायदा यह है कि बिक्री मूल्य के बारे में फैसला लेने वाली इकाई उस कीमत को स्वीकार करने वाली इकाई से अलग होती है। ऐसे में हितों के टकराव और भ्रष्टाचार से बचा जा सकता है, और वास्तव में ऐसा हुआ है।’
सुब्बाराव ने एक साक्षात्कार में कहा, ‘सजा और पुरस्कार के प्रावधानों के साथ सावधानी से डिजाइन किए गए बैड बैंकों के कुछ सफल मॉडल हैं। उदाहरण के लिए हमारे अपने बैड बैंक के गठन के लिए मलेशिया का दानहार्ता एक अच्छा मॉडल है।’ आरबीआई के पूर्व गवर्नर ने कहा कि चालू वित्त वर्ष के दौरान अर्थव्यवस्था में कम से कम पांच प्रतिशत के संकुचन के साथ एनपीए तेजी से बढ़ेगा। इसके अलावा आरबीआई की वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट के अनुसार मार्च 2021 तक बैंकों का सकल एनपीए 12.5 प्रतिशत तक बढ़ सकता है, जो मार्च 2020 में 8.5 प्रतिशत था। उन्होंने कहा, ‘दिवालियापन मसौदे पर पहले ही काफी भार है और यह अतिरिक्त बोझ उठाने में असमर्थ होगा। इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि पहले के मुकाबले कहीं अधिक मात्रा में समाधान दिवाला एवं ऋणशोधन अक्षमता संहिता (आईबीसी) के बाहर किया जाए।’ सुब्बाराव ने कहा था कि पहले उन्हें बैड बैंक को लेकर उनकी कुछ शंकाएं हैं, लेकिन हाल के अनुभवों के मद्देजनर वह इस विकल्प पर विचार कर रहे हैं। उन्होंने कहा, ‘पहले मुझे विश्वास था कि दिवालियापन मसौदा समाधान की प्रक्रिया को पटरी पर रखेगा और प्रणाली को साफ करने में मदद करेगा।’ उन्होंने कहा कि हालांकि, ऐसा लगता है कि यह भरोसा गलत था। सब्बाराव ने यह भी स्वीकार किया कि उन्हें बैंकों की पूंजी संरचना के बारे में भी चिंताएं थीं।
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