पाकिस्तानी साजिश में फंसा बांग्लादेश, बांग्ला पहचान को मिटाने को तैयार है कट्टरपंथी जमात-ए-इस्लामी, विशेषज्ञ से समझें
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10-09-2024 01:44 PM
नई दिल्ली: राष्ट्रगान, किसी भी देश की संस्कृति, सभ्यता, जीवन शैली और विशिष्ट इतिहास को प्रदर्शित करने का बड़ा माध्यम है। इसके प्रत्येक शब्द का नागरिकों पर जादुई असर होता है जो देश को हर परिस्थिति में जोड़ देता है तथा सशस्त्र बलों का हौंसला बढ़ाता है। राष्ट्रगान का संबंध देश की पहचान से होता है। अत: इस पर राजनीतिक मतभेद नहीं होते और यह सबके द्वारा स्वीकार किया जाता है। लेकिन बांग्लादेश में राजनीतिक परिवर्तन के साथ ही वहां पहचान का संकट भी गहरा गया है। साल 1971 में पाकिस्तान से अलग होकर बना यह देश धार्मिक कट्टरता के जाल में उलझकर अपनी पहचान को ही खत्म करने को आमादा नजर आ रहा है। बांग्लादेश की इस्लामिक पहचान को स्थापित करने की कोशिशों में लगे जमात-ए-इस्लामी नामक राजनीतिक दल ने देश के राष्ट्रगान 'आमार सोनार बांग्ला' को बदलने की मांग की है। जमात-ए-इस्लामी को यह राष्ट्रगान वर्तमान बांग्लादेश के लिए अप्रासंगिक नजर आ रहा है।
गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर ने इसे बंगाल विभाजन के समय साल 1906 में लिखा था जब धर्म के आधार पर अंग्रेजों ने बंगाल को दो भागों में बांट दिया था। यह गीत बंगाल के एकीकरण के लिए माहौल बनाने के लिए लिखा गया था। टैगोर की जड़ें बांग्लादेश से जुड़ी हुई हैं और उन्होंने अपने गीत में बंगाल को सोने जैसा,सुगंधित फूलों जैसा और प्राणों से ज्यादा प्रिय बताया था। इस गीत की रचना उन्होंने बांग्ला भाषा में ही की थी और बांग्लादेश ने साल 1972 में इस गीत की प्रथम 10 पंक्तियों को राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार किया था। कट्टरपंथी जमात-ए-इस्लामी को पाकिस्तान परस्त बताया जाता है और उसने प्रारंभ से ही पाकिस्तान से अलग बांग्लादेश के बनने का विरोध किया था। बाद में जमात-ए- इस्लामी के कई नेताओं को पाकिस्तान की सेना का साथ देने के अपराध के कारण बांग्लादेश में सजा भी हुई।
पाकिस्तान में बांग्ला भाषियों से गहरी नफरत
अब शेख हसीना के तख्तापलट के बाद एक बार फिर जमात-ए-इस्लामी देश में मजबूत हो गई है और वह बांग्ला पहचान को मिटाने की कोशिशों में लग गई है। यह भी दिलचस्प है की पाकिस्तान में बांग्ला भाषियों से गहरी नफरत रही है और इसी कारण साल 1971 में पाकिस्तान का विभाजन भी हुआ। पाकिस्तान बनने के बाद जब पाकिस्तान का राष्ट्रगान लिखने की बात आई तो उसमें बंगाल के मशहूर कवि काज़ी नज़रुल इस्लाम का भी नाम शामिल था। इस कार्य के लिए पाकिस्तान में बाकायदा समिति बनाई गई। राष्ट्रगान समिति को कुल मिलकर 200 से अधिक गीत और लगभग 63 धुनें मिलीं। समिति ने हफ़ीज़ जालंधरी और हकीम अहमद शुजा द्वारा लिखे गए गीतों को अपेक्षाकृत अच्छा कहा। लेकिन यह भी सुझाव दिया कि अल्लामा इक़बाल और क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम की दो नज़्मों को आधिकारिक रूप से मंज़ूर करके उन्हें राष्ट्रीय गीत का दर्जा दिया जाना चाहिए। समिति ने क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम के एक गीत,'चल चल चल' को जिसे जसीमुद्दीन ने संशोधित करके बेहतर किया था, राष्ट्रीय गीत के तौर पर मंज़ूर करने की पेशकश भी की थी।
नज़रुल इस्लाम के लेखन में स्वतंत्रता, मानवता, प्रेम और क्रांति जैसे विषय समाहित किए गए है। उन्होंने धार्मिक, जाति आधारित और लिंग आधारित समेत सभी प्रकार की कट्टरता और कट्टरवाद का विरोध किया। वे बांग्ला अस्मिता के भी बड़े समर्थक थे। वहीं पाकिस्तान को इस्लामिक और उर्दू पहचान ही बनाएं रखना था। अत: राजनीतिक स्तर पर क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम के गीत को खारिज कर दिया गया। जबकि बांगलादेश ने धार्मिक पहचान से कहीं ज्यादा सांस्कृतिक पहचान को महत्व दिया। इसी कारण क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम को बांग्लादेश में राष्ट्रीय कवि का सम्मान हासिल हुआ। दूसरी और नोबल पुरस्कार से सम्मानित कवि रवींद्र नाथ टैगोर का संबंध बांगलादेश के नौगांव जिले से रहा है। बांग्लादेश में टैगोर परिवार की तीन बड़ी ज़मींदारियां थीं,इसमें एक पोतिसर में थी। साल 1913 में गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर को प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
बांग्लादेश में जमात-ए-इस्लामी का बड़ा प्रभाव
गुरुवर ने नोबेल पुरस्कार में मिले 1 लाख 8 हज़ार रुपये से किसानों की बेहतरी के लिए पोतिसर में कृषि बैंक और सहकारी समिति की स्थापना की थी। पोतिसर, वर्तमान नौगांव जिले में स्थित एक कस्बा है। भूमिहीन किसानों के बच्चों की शिक्षा के लिए टैगोर ने यहां एक स्कूल भी बनाया,जो आज भी चल रहा है। बांग्लादेश में जमात-ए-इस्लामी का बड़ा प्रभाव है जो राजनीतिक,सामाजिक और सैन्य स्तर पर दिखाई पड़ता है। पाकिस्तान की खुफिया और सैन्य इकाइयों से जमात के गहरें संबंध हैं। ऐसा प्रतीत होता है की पाकिस्तान बांग्ला पहचान को मिटाकर इसे धार्मिक रंग में रंगना चाहता है। इस कार्य में बांग्लादेश के कई राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक कट्टरपंथी संगठन उसकी मदद कर रहे हैं। अब बांग्लादेश की अंतरिम सरकार भी देश में कट्टरपंथियों का समर्थन कर रही है। कई चरमपंथियों को जेल से आजाद कर दिया गया है। यह समूची स्थितियां भारत के पूर्वोत्तर में स्थित आंतरिक संकट बढ़ा सकती हैं। साथ ही यदि इसे बांग्लादेश की सेना का भी समर्थन हासिल हुआ तो भारत के लिए सुरक्षा संकट बढ़ सकता है।
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